हमें आज़ादी चाहिए किस बात कि? किस से आज़ादी चाहिए हमें? क्या हमें कपडे पहनने कि आज़ादी चाहिए? या यूँ कहूँ कि हमें छोटे कपडे पहनने कि आज़ादी चाहिए? हमारी लड़ाई कपड़ों की आज़ादी नहीं, हमारी लड़ाई सोच कि आज़ादी पाने से है|
बचपन से ही तेज़ बोलने कि आज़ादी नहीं. हमेशा यही सिखाया जाता है धीरे बोलो, लड़कियां तेज़ तेज़ नहीं बोलती | भाई के साथ मुकाबला किस बात का है? वो तो लड़का है उसे बाहर जाना है पैसे कमाने हैं, घर बैठ के रोटियां थोड़े ही सेंकनी हैं | ये सुनते हुए थोड़े बड़े हुए तो हमारी कपडे पहनने कि भी आज़ादी गई | बेटा दुपट्टा लेना शुरू करो, लड़कियां ऐसे नहीं घूमती| अरे दस साल कि बच्ची क्या दुपट्टा ओढ़ के घूमेगी, दुपट्टा उठाने काबिल तो हो जाये |
बस अब तो खेलने कि भी आज़ादी गई, बेटा ज़रा मम्मी को किचेन में मदद किया करो, अभी से नहीं सीखोगी तो कैसे काम चलेगा तुम्हारे बाप नौकर थोड़े ही भेजेंगे तुम्हारे साथ | पढाई पे ध्यान दिया करो, अगर डॉक्टर नहीं बन पाई तो शादी कर देंगे तुम्हारी | अब बेचारी कि औकात हो या न हो डॉक्टर बनने कि या उसका कम्पटीशन निकालने की लेकिन उसको पढ़ना है | बहुत कोशिशें की कि नीट निकाल ले पर साइंस ही नहीं चला पाई और आर्ट्स में एडमिशन ले लिया फिर किया था क्लास 10 पास करते ही दहेज़ इकठा होना शुरू हो गया १२ पास करते करते रिश्ता भी हो गया | बहुत रोई गाई बाप से पर १२ पास करते ही शादी भी हो गई |
16 साल में ही ससुराल आ गई. जिस बच्ची ने अभी सही से किचेन में जाना भी नहीं सीखा उसके कन्धों पर पूरे घर को खिलाने पिलाने कि ज़िम्मेदारी आ गई | सास का चिल्लाना, लोगो के ताने, खाना पकाना नहीं आता, क्या सिखाया माँ ने बला बला…. अभी सही से सेट भी नहीं हो पाई बेचारी, और एक और नयी मुसीबत आ गई, शादी के ६ महीने गुज़र गए पर अभी तक खुशखबरी नहीं सुनाई, लगता है माँ नहीं बन पायेगी हम बिना दादा दादी बने ही मर जायेंगे | कोई मर्दों में कमी क्यों नहीं खोजता, क्या हर बात के लिए औरत ही ज़िम्मेदार है?
सबके ताने ज़ुल्म बढ़ते गए सुनती गई पर अपने माँ बाप से कह नहीं सकती क्यूंकि बाप ने पहले ही कह दिया बेटी अब हर सुख दुःख तुम्हारा, अपने बाप कि इज्ज़त मत डुबो देना | ये है हमारा समाज हमारे माँ बाप, जो बचपन पे तो एक खरोंच भी अपनी बेटी पे बर्दाश्त नहीं करते पर शादी करके ऐसे हो जाते हैं जैसे वो उनकी औलाद ही नहीं, ऐसा क्यों? क्या इज्ज़त कि ठेकेदार सिर्फ लड़कियां हैं लड़के चाहे कुछ कर ले वो तो लड़के हैं |
जब घर वालो से सपोर्ट नहीं मिलता तो बेचारी अकेले ही लड़ाई लड़ने निकल पड़ती है, पर ये क्या? अब हमारा समाज ये कैसे बर्दाश्त कर पायेगा कि लड़की ने विरोध कर दिया | ज़रूर किसी और से चक्कर चल रहा होगा तभी अपने पति के खिलाफ खड़ी हो गई | अब बात मायेके तक भी पहुँच गई, कोहराम मच जाता है| बाप सर पीटने लगता है भाई कि इज्ज़त जाने लगती है| मायके वाले कहते हैं, जैसे भी हो अपने पति के साथ रहो, वरना “लोग क्या कहेंगे?” कौन हैं ये लोग जो कुछ कहते हैं? क्यों है हमें इन लोगो कि इतनी फिकर? जो लोग कहते हैं वो भी इसी समाज का हिस्सा हैं और हम इसी समाज का हिस्सा, फिर ये डर क्यों? क्या जो लोग कहते हैं उनके घरो में बेटियां नहीं होती जो ये दर्द समझ नहीं सकते?
अपने लेख को कुछ सवालो के साथ ख़तम करुँगी, जो हमारी बच्चियों, महिलाओं से हैं |
किस बात कि आज़ादी चाहिए हमें, छोटे कपडे पहनने की? या समाज कि छोटी सोच से आज़ादी?
आज़ादी हमें बाहर घूमने की ? या एक अच्छी शिक्षा पाने के लिए दुनिया के किसी भी कोने में जाने की?
आज़ादी हमें पति कि कमाई उड़ाने कि चाहिए? या खुद को इतना मज़बूत बनाने की कि कोई हमें कमज़ोर समझने कि भूल न करे और हम पर अत्याचार न करे?
इन सवालो के जवाब मै आप पर छोडती हूँ……..